चल मेरे साथ ही चल
पिछले लेख में हमने जाना कि गीता है क्या ?
जीवन संग्राम में शाश्वत विजय का क्रियात्मक प्रशिक्षण है
शस्त्रों से लड़े गए किसी भी युद्ध में शाश्वत विजय नहीं मिलती
गीता में शस्त्रों से युद्ध से पहले अन्तःकरण के युद्ध की बात
ये संघर्ष होता कहाँ है , स्थान कहाँ है ?
ये स्थान हमारे अंतःकरण में है जैसा अन्तःकरण में संघर्ष है वो ही शारीरिक क्रिया से संसार में परिलक्षित होता है और हमारे लिए क्रियात्मक फल का स्वरुप बनता और बांधता है
ये शरीर ही क्षेत्र है।
ये शरीर ही क्षेत्र है जिसके अन्तःकरण में धर्मक्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र का निर्माण होता
और शारीरिक क्रिया से ये ही धर्म क्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र का निर्माण मनुष्य संसार में करता है ये ही जीवन के सुख दुःख का निर्माण करता है
प्रश्न है की अगर ये शरीर ही क्षेत्र है तो मनुष्य योनि में रह कर इसके निवारण का रास्ता क्या है ? जिस पुण्य को हम करते हैं फिर भी वो पुण्य हमारे विरोध में क्यों है अर्थात बंधन बांधता है ? आखिर मनुष्य अपने सनातन स्वरुप अर्थात आत्मा अथवा परमात्मा को क्यों नहीं देख पाता ?
योगेश्वर कृष्ण गीता में स्पष्ट करतें हैं की अंतःकरण की दो प्रवृतियां पुरातन हैं देवी सम्पद तथा आसुरी सम्पद।
दैवी सम्पद में हैं - पुण्य रूपी पाण्डु तथा कर्तव्य रूपी कुन्ती
पुण्य जागने से पहले मनुष्य जो कुछ भी कर्तव्य समझ करता है, वह अपनी समझ से कर्तव्य ही करता है परन्तु वो कर्तव्य होता नहीं , क्यूंकि पुण्य के बिना कर्तव्य समझ आता नहीं।
कुंती ने पाण्डु से सम्बन्ध होने से पहले जो कुछ भी अर्जित किया वो था कर्ण।
कर्ण आजीवन कुंती के पुत्रों से लड़ता रहा। वही पांडवों का सबसे भीषण शत्रु है।
विजातीय कर्म ही कर्ण है जो बंधनकारी है अर्थात इस में परम्परागत रूढ़ियों चित्रण ही कर्ण हैं
पूजा पद्धतियां पीछा नहीं छोड़ती जो की हमारे साथ पूर्वजों की सम्पति की तरह आती हैं पूर्वजों की संपत्ति तो आप बेच कर अन्यत्र जा सकते हैं पर दिमाग में बैठी रूढ़ियों से अलग नहीं हो सकते
योगेश्वर कृष्ण समझते हैं की पुण्य जागृत होने से मनुष्य में
धर्म रुपी युधिष्ठिर , अनुराग रूपी अर्जुन , भाव रूपी भीम , नियम रूपी नकुल तथा सत्संग रूपी सहदेव, सात्विकता रूपी सात्यिकी , तथा मानव काया में सामर्थ्य रूपी काशिराज इत्यादि आत्मा अथवा परमात्मा की ओर ले जाने वाली मानसिक प्रवृतियों का जन्म होता है जिनकी गणना सात अक्षौहिणी है।
अक्ष का अर्थ दृष्टि है सत्यमयी दृष्टिकोण का जिससे गठन है उसे दैवी सम्पद कहते हैं
अर्थात आत्मतत्व अथवा परमधर्म परमात्मा तक की दूरी तय करने के लिए ये सात सीढियाँ अथवा मनुष्य योनि की सात भूमिकाएं हैं न की कोई गणना है। वैसे ये प्रवृतिया अनंत हैं।
और योगेश्वर कृष्ण अंतःकरण के इस युद्ध में इन्हीं के साथ खड़े उनके मार्गदर्शक बने हैं।
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