शनिवार, 23 नवंबर 2019

बाबर क्यों नहीं चाहिए भारत में ? या कहें पूरे विश्व में ?

बाबर क्यों नहीं चाहिए भारत में ?
या कहें पूरे विश्व में ?


भारत में मुग़ल शासन की नींव रख कर इतिहास में एक अलग तरह की पहचान बनाने वाले इस शख्श  को जानने के लिए हमें इतिहास के पन्ने   अवश्य पलट लेने   चाहिए।  इसलिए नहीं की बाबर एक व्यक्ति विशेष था  इसलिए कि बाबर एक सोच है एक ऐसी सोच जिस के बारे में जानना और समझना हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धार्मिक मान्यताओं के लोगों के लिए आवश्यक है।  किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके अन्तःकरण में बोये गए संस्कारों के बीज के कारण  होता है ये संस्कार परिवार,समाज तथा देश काल  के कारण उपजता है और जिसकी स्थापना  वो अपने शेष जीवन में संसार में स्थापित करने में अपनी ऊर्जा को लगाता है। 

भारत  में बाबर और मुग़ल साम्राज्य में हुई सांस्कृतिक चोट तथा यहाँ के समाजिक ढांचे में किये गए अत्याचार के फलस्वरूप बाबर एक खलनायक की तरह है। 
कारण सदैव एक ही रहा है 
सत्ता के प्रति आकर्षित  हर व्यक्ति हर उस शक्ति का प्रयोग करता है जो उसके सत्ता पर पहुँचने तथा बने रहने के लिए आवश्यक हो। 
जिसमें रक्त की शुद्धता,नस्ल की सर्वोच्चता , विचारों की असमानता , अथवा आर्थिक सुदृढ़ता, धार्मिक असहिषुणता  इत्यादि जैसे कई विचार सहायक रहते हैं जो की अपनी सर्वोच्चता को सिद्ध करने के लिए उपयोग में लाये जाते है। 
यद्द्यपि धर्म का मूल सिद्धांत एक ही है वस्तुतः टकराव मान्यताओं का है जो की समाज में एक तरह के नियम अथवा उपनियम पैदा करते हैं और जिनको मानना ही सामाजिक व्यवहार में आवश्यक होता है पहचान के लिए।  इन्हीं धार्मिक मान्यताओं के कारण ही किसी भी समाज के  आर्थिक,राजनैतिक तथा सामाजिक नियमों का जन्म होता है। 

समाज को धर्म का मूल सिद्धांत  समाज के होने के लिए केन्द्र में होता है पर समाज मान्यताओं में बंधा उसके विपरीत निर्वाह करता हुआ अनेक लोगों को मान्यतों के आधार पर पीड़ित करने का कारण है।  ये मान्यताएं विपरीत हों तभी अत्याचार का कारण बनेंगी ऐसा नहीं है बल्कि अपनी ही मान्यताओं में भी लोग एक दूसरे पर अत्याचार करते हैं 

कारण फिर भी एक ही है सर्वौच्चता। 

बाबर को जानने से पहले हमें चंगेज़ खान और तैमूर लंग के बारे में जानना चाहिए क्यूंकि बाबर जैसी सोच के जन्म लेने के लिए उस सोच को भी जानना जरूरी है जिसने बाबर को जन्म दिया। 

तब कहीं हम सब ये जान पाएंगे की बाबर भारत अथवा पूरे विश्व में क्यों नहीं चाहिए। 

मेरा प्रयास है की हम किसी ऐसी सोच को जन्म न दें जिससे मानव समाज की हत्या हो बल्कि ऐसी समझ को जन्म दें जिससे हम अपने भीतर के धर्मक्षेत्र का विकास करे और कुरुक्षेत्र के कौरव केवल उस विचारधारा के शंखनाद से ही भयभीत हो। 

अगर भारत में आप चाहते  हैं की चर्चा हो तो विचार के ध्रुवीकरण के लिए न हो कर सहमति से स्वीकार करने के लिए हो। 

यह एक श्रृंखला बद्ध अभिव्यक्ति है जो प्रतिदिन डालता रहूंगा आपको अगर अच्छा लगे और चाहें की सबको तथ्य का पता चले तो कृपया शेयर करें।  

चल मेरे साथ ही चल .......4


चल मेरे साथ ही चल 




पिछले लेख में हमने जाना  कि गीता  है क्या ?
जीवन संग्राम में शाश्वत विजय का क्रियात्मक प्रशिक्षण है

शस्त्रों से लड़े  गए किसी भी युद्ध में शाश्वत  विजय नहीं मिलती 
गीता में शस्त्रों से युद्ध से पहले अन्तःकरण के युद्ध की बात 

ये संघर्ष होता कहाँ है , स्थान कहाँ है ?
ये स्थान हमारे अंतःकरण में है जैसा अन्तःकरण में संघर्ष  है वो ही शारीरिक क्रिया से संसार में परिलक्षित होता है और हमारे लिए क्रियात्मक फल का स्वरुप बनता और बांधता है
ये शरीर ही क्षेत्र है।
ये शरीर ही क्षेत्र है जिसके अन्तःकरण में  धर्मक्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र का निर्माण होता 
और शारीरिक क्रिया से ये ही धर्म क्षेत्र तथा कुरुक्षेत्र का निर्माण मनुष्य संसार में करता है ये ही जीवन के सुख दुःख का निर्माण करता है 

 प्रश्न है की अगर ये शरीर ही क्षेत्र है तो मनुष्य योनि में रह कर इसके निवारण का रास्ता क्या है ? जिस पुण्य को हम करते हैं फिर भी वो पुण्य हमारे विरोध में क्यों है अर्थात बंधन  बांधता है ? आखिर मनुष्य  अपने सनातन स्वरुप अर्थात आत्मा अथवा परमात्मा को क्यों नहीं देख पाता ?
योगेश्वर कृष्ण गीता में स्पष्ट करतें हैं की अंतःकरण की दो प्रवृतियां पुरातन हैं देवी सम्पद तथा आसुरी सम्पद। 

दैवी सम्पद में हैं  -  पुण्य रूपी  पाण्डु तथा कर्तव्य रूपी कुन्ती 
पुण्य जागने से पहले मनुष्य जो कुछ भी कर्तव्य समझ करता है, वह अपनी समझ से कर्तव्य ही करता है परन्तु वो कर्तव्य होता नहीं , क्यूंकि पुण्य के बिना कर्तव्य समझ आता  नहीं। 
कुंती ने पाण्डु से सम्बन्ध होने से पहले जो कुछ भी अर्जित किया वो था कर्ण।
कर्ण आजीवन कुंती के पुत्रों से लड़ता रहा। वही पांडवों का सबसे  भीषण शत्रु है। 
विजातीय कर्म ही कर्ण है जो बंधनकारी है अर्थात इस में परम्परागत रूढ़ियों चित्रण ही कर्ण हैं 
पूजा पद्धतियां पीछा नहीं छोड़ती जो की हमारे साथ पूर्वजों की सम्पति की तरह आती हैं पूर्वजों की संपत्ति तो आप बेच कर अन्यत्र जा सकते हैं पर दिमाग में बैठी रूढ़ियों से अलग नहीं हो सकते 
योगेश्वर कृष्ण समझते  हैं की पुण्य जागृत होने से मनुष्य में 
धर्म रुपी युधिष्ठिर , अनुराग रूपी अर्जुन , भाव रूपी भीम , नियम रूपी नकुल तथा सत्संग रूपी सहदेव, सात्विकता रूपी सात्यिकी , तथा मानव काया में सामर्थ्य रूपी  काशिराज  इत्यादि आत्मा अथवा परमात्मा की ओर ले जाने वाली  मानसिक प्रवृतियों का जन्म होता है जिनकी गणना सात अक्षौहिणी है। 

अक्ष का अर्थ दृष्टि है सत्यमयी दृष्टिकोण का जिससे गठन है उसे दैवी सम्पद कहते हैं  

अर्थात आत्मतत्व अथवा परमधर्म परमात्मा तक की दूरी तय करने के लिए ये सात सीढियाँ अथवा मनुष्य योनि की सात भूमिकाएं हैं न की कोई गणना है।  वैसे ये प्रवृतिया अनंत हैं।

और योगेश्वर कृष्ण अंतःकरण के इस युद्ध में इन्हीं के साथ खड़े उनके मार्गदर्शक बने हैं। 








शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

बाबर की भारत में मौजूदगी क्यों नहीं चाहिए ?

बाबर की भारत में मौजूदगी क्यों नहीं चाहिए ? 
एक दुर्दांत और वहशी शासन व्यवस्था का परिचायक है 
परन्तु भारतीय मुसलमान को भी ये समझना आवश्यक है कि  
उन्हें इस्लाम को बाबर से जोड़ कर नहीं 
देखना चाहिए 
क्यों ? 
इसके लिए आप सबको मेरे इस ब्लॉग को पढ़ते रहें 


तैमूर लंग  १५ लाख लोगों का हत्यारा दुनिया की ५ % आबादी केवल दिल्ली में १ लाख लोगों की हत्या  कारण  इस्लाम का प्रसार और धर्म परिवर्तन 
                                                                                                                                                                           





  बाबर तैमूर लंग के बाद का ६ शासक भारत में मुग़ल साम्राज्य का जनक लाखों हिन्दुओं को मारने  तथा धर्म परिवर्तन करवाने वाली शासन व्यवस्था का जनक








आप को इन तीनों के बारे में तथा इनके बीच के सम्बन्ध  में जानना आवश्यक है
न केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि मुसलमानों के लिए भी  

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

चल मेरे साथ ही चल ....... 3



चल मेरे साथ ही चल 


कल हम बात क्र रहे थे उन १८ बिंदुओं की जिन का   योगेश्वर कृष्ण ने गीता के १८ अध्यायों में वर्णन किया है।  

हमारा अर्थात जीव का गीता में स्थान क्या है ये जान लेना आवश्यक है क्यूंकि गीता ज्ञान का प्रसारण मानव मात्र के लिए किया गया है।  

ये जानना भी आवश्यक है कि गीता है क्या ?

गीता जीविका संग्राम नहीं है अर्थात गीता का ज्ञान इसलिए नहीं की ये  जीविका अथवा संसार के भौतिक सुखों को पाने के लिए है संग्राम का साधन है अपितु जीवन संग्राम में शाश्वत विजय का क्रियात्मक प्रशिक्षण है  इसी लिए यह युद्ध ग्रन्थ है  जो वास्तविक विजय दिलाता है। 
गीता शस्त्रों से लड़ा जाने वाला सांसारिक युद्ध नहीं है 

शस्त्रों से लड़े  गए किसी भी युद्ध में शास्वत विजय नहीं मिलती 

ये सद्सत वृतियों अर्थात सद्गुणों तथा दुर्गुणों  का  संघर्ष है जिनके रूपात्मक वर्णन की परम्परा रही है 
वेदों में इंद्र तथा वृत्र संघर्ष वर्णन,विद्द्या अविद्द्या का संघर्ष , पुराणों में देवासुर संग्राम , महाकाव्यों में  राम रावण युद्ध , कौरवों पांडवों का संघर्ष को ही गीता में धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र , देवीय सम्पदा तथा आसुरी सम्पदा , सजातीय एवं विजातीय , सद्गुणों एवं दुर्गुणों का संघर्ष कहा गया है। 

ये संघर्ष होता कहाँ है , स्थान कहाँ है ? 

गीता का धर्म क्षेत्र और कुरु क्षेत्र कोई भूभाग नहीं बल्कि स्वयं गीतकार अर्थात योगेश्वर कृष्ण के शब्दों में ---
'' इदं शरीरं कौंतये क्षेत्रमित्यभिधीयते। ''

'' कौंतये अर्थात अर्जुन ! ये शरीर ही एक क्षेत्र है, जिसमें बोया हुआ भला बुरा बीज संस्कार रूप से सदा उपजता है दस इन्द्रियां , मन,बुद्धि,चित,अहंकार,पांचों ज्ञान इन्द्रियां ,और तीनो गुणों का विकार इस क्षेत्र का विस्तार है।  प्रकृति से उत्प्न्न इन तीनों गुणों राजस,तमस,सात्विक से विवश हो कर मनुष्य को कर्म करना पड़ता है।  वह एक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। ''
यही कुरुक्षेत्र है क्यूंकि कुरु का अर्थ है करो जो की प्रकृति से प्रेरित है   
जब मनुष्य परमधर्म परमात्मा की ओर अग्रसर होता है तो ये धर्मक्षेत्र बन जाता है 

ये शरीर ही क्षेत्र है। 

मनुष्य योनि  है क्या इस का वर्णन योगेश्वर गीता में देते है तथा मनुष्य योनि का महत्व एवम  हमारे दुखों का कारण इस संघर्ष की देन मात्र हैं। 


बुधवार, 20 नवंबर 2019

चल मेरे साथ ही चल ----- 2





चल मेरे साथ ही चल 



कल बात कर रहे थे की बिना वैराग्य के विवेक का ज्ञान नहीं हो सकता 

वैराग्य का अर्थ सामान्यतः ये लगाया जाता है की सब कुछ का त्याग वस्तुतः ऐसा नहीं है इसका अर्थ है जो  हमें बांधे  रखता है उससे आसक्ति न होना अर्थात उसे  अपने से जुड़ा न जान   कर एक क्रिया के रूप में देखना  और उससे उत्पन्न हर परिस्थिति अथवा वस्तु तो प्रतिक्रिया रूपी फल के रूप में देखना !

जब ये जान जाओगे की कौन सी क्रिया की प्रतिक्रिया से कौन सा परिणाम अर्थात फल मिल रहा है तथा  उसके अनुसार मानव मूल्यों का प्रयोग कर  निर्णय करना ही विवेक है 

वैराग्य और विवेक के लिए मानव मूल्यों का जान लेना आवश्यक है 

ये अवश्य जाने मनुष्य योनि को जानने के लिए 
  1. सत्य ....... केवल आत्मा सत्य है 
  2. सनातन ...... केवल आत्मा सनातन  है और परमात्मा सनातन  है 
  3. सनातन धर्म ......  परमात्मा से मिलाने वाली क्रिया हैं 
  4. युद्ध ....... दैवी तथा आसुरी सम्पदाओं का संघर्ष युद्ध है ये अन्तःकरण की दो प्रवृतियां हैं 
  5. युद्ध स्थल ...... यह मानव शरीर और मन सहित इन्द्रियों का समूह युद्धस्थल है 
  6. ज्ञान ...... परमात्मा की प्रत्यक्ष जानकारी ज्ञान है 
  7. योग ....... संसार के संयोग वियोग से रहित अव्यक्त ब्रह्म अर्थात परमात्मा से मिलान का नाम योग है 
  8. ज्ञानयोग .......  आराधना ही कर्म है। अपने पर निर्भर हो कर कर्म करना ज्ञान योग है
  9. निष्काम योग........ इष्ट पर निर्भर हो कर समर्पण के साथ कर्म करना निष्काम योग है 
  10. यज्ञ। ........ साधना की विधि का नाम ही यज्ञ है 
  11. कर्म। ....... यज्ञ को कार्य रूप देना ही कर्म है 
  12. वर्ण। ...... आराधना की एक ही विधि है जिसका नाम कर्म है जिसको चार श्रेणियों में  गया बांटा है वही  चार वर्ण हैं।  यह एक ही  साधक का ऊंचा नीचा स्तर है न की जाति 
  13. वर्ण संकर। ....... परमात्म पथ से च्युत अथवा दूर होना , साधन में भ्रम उतपन्न हो जाना वर्णसंकर है 
  14. मनुष्य की श्रेणी। ....... अन्तः करण के स्वभाव के अनुसार मनुष्य दो प्रकार के हैं एक देवताओं जैसा , दूसरा असुरों जैसा।  ये ही मनुष्य की दो जातियां हैं, जो स्वभाव से निर्धारित हैं और स्वभाव घटता बढ़ता रहता है 
  15. देवता। ....... हृदय देश में परमदेव का देवत्व अर्जित करवाने वाले गुणों का समूह 
  16. अवतार। ...... मनुष्य के हृदय में होता है बाहर नहीं 
  17. विराट दर्शन। ...... योगी के हृदय में ईश्वर के द्वारा दी गयी अनुभूति है भगवन साधक में दृष्टि बन कर खड़े हों तभ दिखाई देते हैं
  18. पूजनीय देव अथवा इष्ट...... एकमात्र ब्रम्ह ही पूजनीय देव हैं और उन्हें खोजने का स्थान हृदय देश 
'' योगेश्वर कृष्ण द्वारा कहे गए शब्दों से ये ज्ञान प्रसारित हुआ है जो की मानव जीवन के महत्व तथा मनुष्य योनि में जीव की भूमिका तथा कर्म को समझाता है

आगे हम इसी पर चर्चा करेंगे की योगेश्वर के ये शब्द किस तरह से हमारे भौतिक जीवन से अध्यातिक जीवन की और लेजाने की एक प्रक्रिया है तथा शाश्वत विजय ,शाश्वत संतोष , शाश्वत शांति का रास्ता प्रदान कर के मानव योनि का रहस्य बताते हैं 
 



मंगलवार, 19 नवंबर 2019

चल मेरे साथ ही चल ........ अगर आप सोचते हैं की जीवन में मैं सुखी नहीं हूँ और कारण नहीं जान पा रहे तो एक बार अवश्य इस मार्ग को समझें अच्छा लगे तो साथ चलें



चल मेरे साथ ही चल 



ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनाः ! 
मनः षष्ठानी ि न्द्राणी प्रकृतिस्थानि कर्षति !!    
गीता अध्याय १५   श्लोक ७ 

''भगवन कृष्ण कहते हैं की सभी मानव ईश्वर की संतान हैं''

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् !!
गीता अध्याय ९ श्लोक ३३ 

'' भगवान कृष्ण कहते हैं की सुखरहित क्षणभंगुर किन्तु दुर्लभ मानव तन को पाकर मेरा भजन कर अर्थात भजन का अधिकार केवन मनुष्य शरीरधारी को है ''



५००० वर्ष पहले आने वाले समय के लिए कहे गए शब्दों में सम्पूर्ण ज्ञान है जो की सम्पूर्ण मानव जाती के लिए है 

इस जीवन का कोई तो अर्थ  होगा आखिर मैं मानव योनि में भी वो ही सब क्यों कर रहा हूँ जो अन्य निकृष्ट योनियों के जीव कर रहें है और आश्चर्य इस बात का है की ये सारी योनियां मनुष्य योनि के अधीन हैं

मानव जीवन के महत्व को समझें

भौतिक जीवन में की जाने वाली क्रियायें  ही आपके लिए आध्यात्मिक जीवन का मार्ग सुनिश्चित करेंगी जिससे आपके जीवन के सभी दुखों का अंत होगा    

अगर आपको भौतिक जीवन  का मार्ग, शाश्वत संतोष तथा  शांति चाहिए तो गीता का सहारा लें 

पहले जानें , समझें , और फिर क्रियान्वित करें 

याद रखें की एक दिन जाना है  पर साथ क्या जायेगा ये अवश्य सुनिश्चित करें 

बिना वैराग्य और विवेक के की गई कोई भी क्रिया का  मानव जीवन में कोई औचित्य नहीं है 
क्रिया की प्रतिक्रिया होती है जो फल के रूप में हमें प्राप्त होते हैं  अतः ये चक्र चलता रहता है और इसे ही हम कर्म मान  बैठते हैं 
वैराग्य का अर्थ समझें तभी आप विवेक को जान पाएंगे और उस से ही कर्म का मार्ग प्रशस्त होगा जो कभी क्षय नहीं होता और केवल आत्मतत्व अथवा परमात्मा से मिलन के लिए मार्ग प्रशस्त करता है   

जो कुछ इस लेख में प्रतिदिन मैं लिखूंगा वो हो सकता है आपके जीवन में परिवर्तन ला सके जिसके जीवन में परिवर्तन आ जाता है उसके लिए सृष्टि में भी परिवर्तन आ जाता है 

अगर आपको ये मेरा प्रयास अच्छा लगे तो कृपया इसे बांटें क्यूंकि प्रकृति का नियम है जिस भी वस्तु को बांटोगे वो उतना ही बढ़ेगी 

प्रेम बांटो प्रेम बढ़ेगा , घृणा बांटो घृणा बढ़ेगी ,





मूक दर्शक 

देश में गरीबी है 
देश में अनपढ़ता है 
देश में असमानता है 
देश में असहिषुणता है 

देश में रोटी   है
देश में कपडा है
देश में मकान  है
देश में रोजगार है 
देश में स्कूल है 
देश में संस्कार हैं 
देश में भाईचारा है 

फिर देश बेचैन क्यों है 
कारण 
सिर्फ इतना ही समझ पाया हूँ 
इन सब के लिए सब जिम्मेवार हैं 

क्यों की हम सब 

मूक दर्शक हैं