बुधवार, 20 नवंबर 2019

चल मेरे साथ ही चल ----- 2





चल मेरे साथ ही चल 



कल बात कर रहे थे की बिना वैराग्य के विवेक का ज्ञान नहीं हो सकता 

वैराग्य का अर्थ सामान्यतः ये लगाया जाता है की सब कुछ का त्याग वस्तुतः ऐसा नहीं है इसका अर्थ है जो  हमें बांधे  रखता है उससे आसक्ति न होना अर्थात उसे  अपने से जुड़ा न जान   कर एक क्रिया के रूप में देखना  और उससे उत्पन्न हर परिस्थिति अथवा वस्तु तो प्रतिक्रिया रूपी फल के रूप में देखना !

जब ये जान जाओगे की कौन सी क्रिया की प्रतिक्रिया से कौन सा परिणाम अर्थात फल मिल रहा है तथा  उसके अनुसार मानव मूल्यों का प्रयोग कर  निर्णय करना ही विवेक है 

वैराग्य और विवेक के लिए मानव मूल्यों का जान लेना आवश्यक है 

ये अवश्य जाने मनुष्य योनि को जानने के लिए 
  1. सत्य ....... केवल आत्मा सत्य है 
  2. सनातन ...... केवल आत्मा सनातन  है और परमात्मा सनातन  है 
  3. सनातन धर्म ......  परमात्मा से मिलाने वाली क्रिया हैं 
  4. युद्ध ....... दैवी तथा आसुरी सम्पदाओं का संघर्ष युद्ध है ये अन्तःकरण की दो प्रवृतियां हैं 
  5. युद्ध स्थल ...... यह मानव शरीर और मन सहित इन्द्रियों का समूह युद्धस्थल है 
  6. ज्ञान ...... परमात्मा की प्रत्यक्ष जानकारी ज्ञान है 
  7. योग ....... संसार के संयोग वियोग से रहित अव्यक्त ब्रह्म अर्थात परमात्मा से मिलान का नाम योग है 
  8. ज्ञानयोग .......  आराधना ही कर्म है। अपने पर निर्भर हो कर कर्म करना ज्ञान योग है
  9. निष्काम योग........ इष्ट पर निर्भर हो कर समर्पण के साथ कर्म करना निष्काम योग है 
  10. यज्ञ। ........ साधना की विधि का नाम ही यज्ञ है 
  11. कर्म। ....... यज्ञ को कार्य रूप देना ही कर्म है 
  12. वर्ण। ...... आराधना की एक ही विधि है जिसका नाम कर्म है जिसको चार श्रेणियों में  गया बांटा है वही  चार वर्ण हैं।  यह एक ही  साधक का ऊंचा नीचा स्तर है न की जाति 
  13. वर्ण संकर। ....... परमात्म पथ से च्युत अथवा दूर होना , साधन में भ्रम उतपन्न हो जाना वर्णसंकर है 
  14. मनुष्य की श्रेणी। ....... अन्तः करण के स्वभाव के अनुसार मनुष्य दो प्रकार के हैं एक देवताओं जैसा , दूसरा असुरों जैसा।  ये ही मनुष्य की दो जातियां हैं, जो स्वभाव से निर्धारित हैं और स्वभाव घटता बढ़ता रहता है 
  15. देवता। ....... हृदय देश में परमदेव का देवत्व अर्जित करवाने वाले गुणों का समूह 
  16. अवतार। ...... मनुष्य के हृदय में होता है बाहर नहीं 
  17. विराट दर्शन। ...... योगी के हृदय में ईश्वर के द्वारा दी गयी अनुभूति है भगवन साधक में दृष्टि बन कर खड़े हों तभ दिखाई देते हैं
  18. पूजनीय देव अथवा इष्ट...... एकमात्र ब्रम्ह ही पूजनीय देव हैं और उन्हें खोजने का स्थान हृदय देश 
'' योगेश्वर कृष्ण द्वारा कहे गए शब्दों से ये ज्ञान प्रसारित हुआ है जो की मानव जीवन के महत्व तथा मनुष्य योनि में जीव की भूमिका तथा कर्म को समझाता है

आगे हम इसी पर चर्चा करेंगे की योगेश्वर के ये शब्द किस तरह से हमारे भौतिक जीवन से अध्यातिक जीवन की और लेजाने की एक प्रक्रिया है तथा शाश्वत विजय ,शाश्वत संतोष , शाश्वत शांति का रास्ता प्रदान कर के मानव योनि का रहस्य बताते हैं 
 



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