गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

स्वाह होते सवाल



स्वाह होते सवाल 

घर के पिछवाड़े में एक शाम अख़बार का अंतिम संस्कार किया
 मैंने,
उन नारंगी लपटों में काले स्याही से लिखे सवालों को जलते देखा
 मैंने,
आज के बाद इन सवालों ली कोई पहचान नहीं होगी ऐसा सोचा था
 मैंने, 
गलत था मैं, 
लपटों में जल कर भी राख के ढेर बने  पन्नों पर सवालों को  उभरते देखा 
मैंने,
जाने इन बरसों में मेरे भीतर की ज्वाला में कितने सवाल स्वाह  किये
 मैंने
पर समझ में आज आया अपनी कुंठा का  सच जब  स्वाह  होते सवाल राख के ढेर में 
उभरते देखे मैंने 
भीतर की अग्नि में चाहे जो भी जला डालो पर कर्मों की स्याही से लिखा सच जल कर 
भी उभरते देखा मैंने
अंतर्  केवल इतना था कि  कुछ देर पहले छूने से वो बिखरते नहीं थे परन्तु अब 
हवा से भी बिखरते देखा मैंने 

  

  

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